- डॉ. सन्तोष पाटीदार
'भाकिसं' के वरिष्ठ पदाधिकारी मोहिनी मोहन मिश्र भी यह दर्द बयां कर चुके हैं। वे मानते हैं कि देश की आजादी के बाद से अब तक कोई भी केंद्र सरकार रही हो, वह किसानों के हितों को लेकर संजीदा नहीं रही है और किसी ने भी किसानों की नहीं सुनी है। चाहे कांग्रेस की सरकारें रही हों या भाजपा की या फिर मौजूदा मोदी सरकार, सभी ने किसानों के हितों को नजरअंदाज किया है।
सत्ता, पूंजी और पूंजीपति आधारित मनचाहे विकास के 'शाइनिंग-मध्यप्रदेश' से लेकर कर्मपथ के 'वाइब्रेंट इंडिया' तक सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। 'शाइनिंग-इंडिया' को आईना दिखाती गांवों की 70 फ़ीसद आबादी वाली, गरीब भारत की खेती-किसानी इसकी हकीकत बयां कर रही है। चकाचौंध की इवेंट-पॉलिटिक्स से लबरेज शिवराज सरकार का 'खेती को लाभ का धंधा बनायेंगे' का घिसा-पिटा हवाई सूत्र-वाक्य हो या मोदी सरकार का 'किसानों की आय को दोगुना करेंगे' का जादूगरी नारा, इसके सामने सबके सब औंधे मुंह पड़े हैं।
यह न विरोधी दलों के आरोप हैं न ही वाम विचार। यह दास्तान किसानों का वह 'भारतीय किसान संघ' (भाकिसं) सुना रहा है जो 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' (आरआरएस) का सहयोगी संगठन है। अपनी बात कहने के लिए देशभर के दूरस्थ गांवों के लाखों किसान अपने सारे काम छोड़कर कड़कड़ाती ठंड में यात्रा की तकलीफ उठाते हुए दिल्ली कूच कर रहे हैं। इसके लिए किसानों को अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करना पड़ रही है। उनमें गुस्सा इतना है कि सरकार और संसद को जगाने राष्ट्रव्यापी आंदोलन तक करने तैयार हैं। किसान 19 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान पर पहुंचे जहां संसद का बजट सत्र चल रहा है। किसानों की आवाज से सरकार और संसद की नींद टूट जाए इस लिहाज से आंदोलन की योजना बनाई गई है।
दूसरी ओर, बीते वर्ष केंद्र के तीन कृषि कानूनों को रद्द कराने वाला किसान आंदोलन किसानों की लंबित मांगें लेकर फिर से मोर्चा लेने के मूड में है। खेती के तीन कानून रद्द करने के साथ ही 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (एमएसपी) कानून बनाने का वादा किया गया था। 'संयुक्त किसान मोर्चा' का आरोप है कि 'एमएसपी' कानून के वादे पर सरकार ने धोखा दिया है। यही स्थिति रही तो पुन: आंदोलन होगा और दिल्ली 'सील' होगी। स्पष्ट है कि देश भर में खेती-किसानी का संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा है। आंदोलन के लिए एक के बाद एक संगठन कमर कस रहे हैं।
खबर यह भी है कि हरियाणा और उत्तरप्रदेश के गन्ना उत्पादक किसानों का बकाया शक्कर मिलों द्वारा नहीं दिया गया है। करोड़ों रुपयों का भुगतान अब तक नहीं होने से हजारों किसान नाराज हैं और वे विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सबसे ज्यादा बकाया उत्तरप्रदेश, हरियाणा में है। मध्यप्रदेश के धार, खरगोन की शक्कर मिलों में भी गन्ने के भाव कम देने और बकाया भुगतान नहीं करने से किसानों में गुस्सा है। 'रेवा शुगर मिल' में किसानों ने बीते दिनों बकाया पैसा नहीं मिलने पर प्रदर्शन किया था। इस सबसे जगह-जगह सरकार के खिलाफ किसानों में आक्रोश है।
'भाकिसं' जैसे 'आरएसएस' के अनुषांगिक संगठन 'भाजपा' की सरकारों से लड़ने को विवश हैं। बीते महीनों में 'भाकिसं' अपनी मांगों को लेकर राज्य और जिला स्तर पर लगातार धरने-प्रदर्शन कर सरकार को जगाने के लिए गर्जना कर चुका है। दिल्ली में किसान खेती की उपज का लाभकारी मूल्य देने, भू-अधिग्रहण, जंगल के जानवरों से फसलों के नुकसान, 'सम्मान-निधि,' कृषि-उत्पादों से 'जीएसटी' हटाने जैसी महत्वपूर्ण मांगों को लेकर पहुंचे हैं। इसकी एक ही वजह दिखाई देती है- सरकारों की नजर में किसान और खेती दोयम दर्जे की है, जबकि कोरोना से तबाह अर्थव्यवस्था को बचाने और घरों में दुबकी, भूखी जनता का पेट किसानों ने ही भरा है। किसानों और उनके खेत-खलिहानों ने ही सरकारों के खजाने को भी खाली नहीं होने दिया।
'भाकिसं' के वरिष्ठ पदाधिकारी मोहिनी मोहन मिश्र भी यह दर्द बयां कर चुके हैं। वे मानते हैं कि देश की आजादी के बाद से अब तक कोई भी केंद्र सरकार रही हो, वह किसानों के हितों को लेकर संजीदा नहीं रही है और किसी ने भी किसानों की नहीं सुनी है। चाहे कांग्रेस की सरकारें रही हों या भाजपा की या फिर मौजूदा मोदी सरकार, सभी ने किसानों के हितों को नजरअंदाज किया है। ऐसे में किसानों को पुन: अपनी ताकत दिखानी पड़ रही है।
'भाकिसं' किसानों को 'एमएसपी' की बजाय 'लाभकारी मूल्य' दिलाने की मांग पर अडिग है। संगठन के क्षेत्रीय मंत्री महेश चौधरी कहते हैं कि 'किसानों को उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलता। 'एमएसपी' 'लाभकारी मूल्य' कतई नहीं है। किसानों को 'लाभकारी मूल्य' प्राप्त हो, इसके लिए उनका संगठन आंदोलन करने के लिए विवश हुआ है।' उन्होंने बताया कि संगठन की मांगों पर कार्रवाई के लिए मोदी सरकार को 31 अगस्त फिर 8 सितंबर तक का समय दिया गया था, लेकिन सरकार ने सकारात्मक रुख नहीं अपनाया। सितंबर में देशभर से मांग उठाई गई। इसके बाद अक्टूबर में दिल्ली में 19 दिसंबर 2022 को 'राष्ट्रीय गर्जना रैली' और प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया।
मोदी सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के सवाल पर महेश चौधरी कहते हैं कि इसका फार्मूला भी उपज की लागत पर निर्भर है। सबसे पहले यह निर्धारण होना चाहिए कि किसानों का खेती में व्यय कितना हो रहा है। जब लागत का निर्धारण हो जायेगा, तब ही उपज बेचने के भाव पर लाभ का आंकलन होगा। इस तरह लागत के आधार पर किसानों को
लाभदायक मूल्य मिल सकता है। 'समग्र कृषि खर्च' के लिहाज से 'एमएसपी' किसान के लिए फायदेमंद नहीं है, जबकि 'लाभकारी मूल्य' में किसान द्वारा लगाई गई पूंजीगत लागत पर ब्याज, मशीनरी के मूल्यह्रास, किसान के परिश्रम के अनुसार मेहनताना शामिल है। इस तरह फसल उत्पादन में होने वाले कुल खर्च की लागत पर 50 प्रतिशत लाभांश जोड़कर 'लाभकारी मूल्य' की गणना की गई है।
'भाकिसं' इस मांग को लंबे समय से उठा रहा है। 'इंदौर महानगर किसान संघ' के अध्यक्ष दिलीप मुकाती ने बताया कि हमारी यह भी मांग है कि 'भूमि अधिग्रहण कानून - 2013' में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सुनियोजित ढंग से किए गए किसान विरोधी प्रावधानों को खत्म किया जाए। इसी तरह किसान को फसल उत्पादक होने के बावजूद 'जीएसटी' का 'इनपुट क्रेडिट' नहीं मिलता। इसलिए 'किसान गर्जना रैली' में कृषि-आदानों पर से 'जीएसटी' खत्म करने की मांग भी की गई है। खरगोन-क्षेत्र के 'भाकिसं' के जिला अध्यक्ष सदाशिव पाटीदार और श्याम सिंह पंवार कहते हैं कि बढ़ती महंगाई व मुद्रा-स्फीति के अनुसार 'किसान सम्मान निधि' की राशि में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए। विकास के नाम पर कृषि-भूमि के अधिग्रहण की मनमानी बंद होनी चाहिए और फसलों को नुकसान कर रहे जंगली जानवरों के नियंत्रण के लिए वन, पर्यावरण संगत नीति बनाने के साथ नुकसान का मुआवजा दिया जाना चाहिए या फिर खेतों की फेंसिंग के लिए अनुदान दिया जाना चाहिए। फेंसिंग से फसल नीलगाय से लेकर जंगली सुअरों तक से सुरक्षित हो जायेगी।
'भाकिसं' के वरिष्ठ पदाधिकारी लक्ष्मीनारायण पटेल कहते हैं कि 'लागत मूल्य' इसलिए भी जरूरी है कि ग्रामीण इला$के में जो किसान हैं, उनमें से 50 फ़ीसदी के पास ज़मीन नहीं के बराबर है। बाक़ी के 50 फ़ीसदी में से 25 फ़ीसदी के पास एक एकड़ से कम ज़मीन है। ऐसे किसान अपनी फ़सल 'एमएसपी' पर बेच ही नहीं पाते। इन्हें 'एमएसपी' की जानकारी ही नहीं होती। बाक़ी बचे 25 फ़ीसदी किसानों में से लगभग 10 प्रतिशत किसान अपनी 'एमएसपी' वाली फ़सलें बाजार में बेच पाते हैं। 'शांताकुमार कमेटी' में तो यह संख्या और भी कम बताई गई है। 'भाकिसं' के 'जैविक-खेती प्रमुख' आनंद ठाकुर कहते हैं कि सरकार द्वारा 'जीएम (जीन-संवर्धित) फसलों' को भी चोरी-छुपे अनुमति देने से कृषि के जानकारों से लेकर किसानों और पर्यावरण व सामाजिक कार्यकर्ताओं में नाराजगी है। बीते 20 वर्षो से 'भाकिसं' 'जीएम फसलों' का कड़ा विरोध कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)